सोमवार, 12 दिसंबर 2022

 

 

काफ़िर-22

 

…आस्माँ कहाँ है? …जिन्दा है। …जन्नत, क्या मेरे आना तुम्हें अच्छा नहीं लगा? …तुम्हारे आने न आने से क्या फर्क पड़ता है। …तो तुमने जुबैर का कत्ल क्यों किया? वह कुछ देर चुप रही और फिर धीरे से बोली… पहले उस हरामखोर ने गंदरबल मे अपने लोगों से दंगा कराया और फिर अपने आदमियों से हमारे डेरे पर हमला करवाया। उस हमले मे हमारे अब्बा को जिंदा जला कर हम दोनो बहनों को वह अपनी मस्जिद मे जबरदस्ती उठा लाया था। दो महीने तक उसने हमे अपनी मस्जिद के तहखाने मे कैद रखा। उसने हमारी इज्जत से खिलवाड़ किया और जब मन भर गया तो उसने इनाम के तौर पर हमे अपने कारिन्दों एजाज और फरहत के हवाले कर दिया था। जब उसे जम्मू की मस्जिद मे देखा तभी मैने सोच लिया था कि आज इसे जिंदा नहीं छोड़ूँगी। इतना बोल कर वह मेरी ओर देखने लगी तो मैने मुस्कुरा कर कहा… अगर तुम मुझे पहले बता देती तो मै ही उसको मार देता। क्या वह बच्चा उसका था? …नहीं, मंसूर का था। …वही जो तुम्हे पाकिस्तान से लेकर आया था। जन्नत ने अबकी बार सिर्फ सिर हिला दिया था। मैने उसके चेहरे को अपने हाथ मे लिया और उसकी झिलमिलाती हुई आँखों मे झाँकते हुए कहा… मै महसूस कर सकता हूँ कि तुम लोग यहाँ अपने अच्छे भविष्य के लिये आये थे परन्तु इन दरिन्दो ने तुम्हें इज्जत से जीने नहीं दिया। उसकी आँखे उसके दिल का हाल बयान कर रही थी। मैने धीरे से झुक कर उसके माथे को चूम कर छोड़ दिया परन्तु वह मुझसे लिपट कर फूट-फूट कर रोने लगी। मै उसको चुप कराने की कोशिश मे लग गया था।

कुछ देर बाद जब वह शांत हो गयी तो मुस्कुरा कर बोली… आस्माँ उस दिन तुम्हें जरुर चाकू मार देती क्योंकि वह तुम्हें अपनी रुसवाई का जिम्मेदार मानती है। मैने आश्चर्य से उसकी ओर देख कर पूछा… क्यों मैने ऐसा कौनसा गुनाह उसके साथ कर दिया था? तभी दरवाजे की ओर से आवाज आयी… अगर उस दिन तुमने अब्बा की बात मान ली होती तो मेरी ऐसी रुसवाई नहीं होती। हम दोनो की नजर दरवाजे की ओर चली गयी जहाँ आस्माँ खड़ी हुई हम दोनो को ताक रही थी। मै जैसे ही उठने को हुआ वह तेजी से आगे बढ़ कर मुझ पर छा गयी थी। बड़ी मुश्किल से मैने अपने आप को उससे अलग करके पूछा… तुम्हारे अब्बा की बात मान कर ही तो मैने तुम सबको किश्तवार भिजवा दिया था। अबकी बार जन्नत ने मुस्कुरा कर कहा… अब्बा तो इसको तुम्हे दे रहे थे परन्तु तुमने ही मना कर दिया था। हमारे साथ आकर बेचारी ने क्या नहीं झेला और फिर जब फरहत के घर मिले तो तुमने हमे पहचाना तक नहीं। बेचारी छोटी का दिल टूट गया था। जब मैने इसे तुम्हारी रंगरलियों का बताया तो यह तुम्हारा खून करने पर आमादा हो गयी थी। उसकी बात सुन कर मेरी आँखें शर्म से झुक गयी थी। बात बदलने के लिये मैने जल्दी से कहा… तुम दोनो सिर्फ शिकायत ही करती रहोगी या फिर खाने के लिये भी कहोगी। सुबह नाश्ता करके श्रीनगर से चला था। तुम्हें ढूँढते हुए न जाने कितने मील पैदल चल कर यहाँ पहुँचा हूँ और अब भूख सता रही है। क्या तुम्हारे पास कुछ खाने को है?

आस्माँ ने चिड़ते हुए कहा… इनको भूखा मरने दो। इनकी यही सजा है। जन्नत तब तक उठ कर बरतन मे से सुबह की रोटी निकाल कर मेरे आगे रखते हुए बोली… समीर, हमारे पास बस यही बचा है। इसे तुम खा लो। अभी मेरी गैरत मरी नहीं थी तो मैने कहा… तुम दोनो क्या मेरे साथ चलोगी? दोनो ने चौंक कर मेरी ओर देखा तो मैने कहा… नहीं चलना चाहो तो कोई बात नहीं लेकिन मै चाहता हूँ कि एक काम मे तुम दोनो मेरी मदद करो। दोनो बहनों ने एक दूसरे को देखा और फिर आस्माँ ने कहा… फिर बीच रास्ते मे छोड़ तो न दोगे। एक पल सोच कर मैने कहा… जब तक जिंदा हूँ तब तक तुम दोनो की जिम्मेदारी उठाने की कसम लेता हूँ और आगे का पता नहीं। यह तुम्हें पहले ही बता देता हूँ कि मेरा निकाह हो गया है इसलिये झूठी उम्मीदें मुझसे न रखना। मैने अपनी बात उनके सामने रख दी थी और उनके जवाब का मै इंतजार करने बैठ गया। दोनो बहनों ने आँखों ही आँखों मे बात की और फिर जन्नत उठते हुए बोली… क्या आज की रात इस झोंपड़ी मे गुजारनी है? हम दोनो जल्दी से उठे और जन्नत के पीछे उस छोटी सी झोंपड़ी को छोड़ कर चल दिये थे। किश्तवार पहुँच कर हमने खाना खाया और रात की बस पकड़ कर तीनों कुपवाड़ा चल दिये थे।

कुपवाड़ा शहर सीमावर्ती जिला होने के कारण बेहद संवेदनशील जगह थी। जंगलो से घिरा यह जिला सीमा पार के घुसपैठियों के लिये सबसे पसन्दीदा रास्ता था। भारतीय फौज के साथ बीएसएफ की चौकियाँ भी सभी दिशाओं मे फैली हुई थी। भारत-पाक सीमा भी कुपवाड़ा शहर से ज्यादा दूर नहीं थी। सबसे पहले शहर से बाहर निकल कर हमने अपने ठहरने का इंतजाम किया। सेवा निवृत स्कूल मास्टर का बाटपोरा स्थित डेड़ मंजिला कच्चा मकान खाली पड़ा हुआ था। पैसों की तंगी के कारण वह मकान नहीं बना पा रहा था। जन्नत और आस्माँ कुछ कपड़े खरीदने के लिये बाजार मे घूम रही थी। एक जनाना दुकान पर जन्नत की मुलाकत मास्टर की बीवी से अनायस ही हो गयी थी। बातों-बातों मे उन्होंने सिर छिपाने के लिये जगह की तलाश के बारे मे जिक्र किया तो उस मास्टर की बीवी ने अपने मकान का जिक्र कर दिया था। उसी दोपहर को हम तीनो उस मास्टर के घर पर पहुँच गये थे। दो महीने के लिये दस हजार रुपये मे मास्टरजी ने अपना कच्चा मकान हमे किराये पर दे दिया था। रात तक हमने अपनी गृहस्थी उस मकान मे जमा ली थी। उस मकान मे कमी तो सिर्फ बिजली की थी। पानी का चश्मा मकान के पीछे से गुजरता था तो वहाँ रहने मे हमे ज्यादा तकलीफ नहीं उठानी पड़ी थी।

रात को अपने नये घर मे खाना खाने के बाद एक किनारे पर जमीन पर पड़े हुए गद्दे पर अपनी कमर सीधी कर रहा था कि मेरा ध्यान बहनों की ओर आकर्शित हुआ जो दबे हुए स्वर मे एक दूसरे के साथ किसी बात पर बहस कर रही थी। …क्या हुआ जन्नत? …कुछ नहीं। आप आराम करें समीर। मेरी आँखों मे नींद नहीं थी। मै करवट लेकर सोने की कोशिश मे जुट गया कि तभी मुझे किसी के पीछे लेटने का एहसास हुआ तो मैने पलट कर देखा तो आस्माँ चुपचाप मेरे साथ आकर लेट गयी थी। लालटेन की मध्यम लौ ने कमरे को छुट-पुट रौशन कर रखा था। वह चुपचाप मेरे समीप लेट कर मुझे देख रही थी। हमारी नजरें चार हुई तो उसकी आँखों मे समर्पण के भाव थे। मैने अपनी बाँह उसकी ओर बढ़ायी तो वह पके फल की तरह मेरे आगोश मे सिमट गयी थी। तभी जन्नत ने कमरे मे कदम रखा और मेरी ओर देख कर मुस्कुरायी फिर लालटेन की लौ निम्न करके कुछ दूरी बना कर लेट गयी थी। …आस्माँ। …हुँ। मेरा हाथ पीठ से सरकते हुए उसके नितंब पर चला गया था। …तुमसे तीन अलग समय और अलग हालात मे मिला हूँ। हर बार जब मिला मैने महसूस किया तुम बदल गयी हो। कमरे की सारी शांति तोड़ते हुए वह तमक कर बोली… क्या बदल गया है?  …चलो एक-एक करके बताता हूँ। उसका चेहरा अपने हाथों मे लेकर कहा… कठुआ मे यह चेहरा एक कमजोर से लड़के का था। उसके माथे को चूम कर जैसे ही उसके कान पर गर्म साँसों का प्रहार हुआ वह काँप गयी थी। उसके गालों पर होंठ टिकाने से पहले मैने धीरे से उसके कान मे कहा… श्रीनगर मे इन पर गुलाबीपन झलक रहा था तो अब मैने इन्हें लाल करके ही छोड़ूँगा। मेरे होंठ उसके गालों का रस सोखने मे लग गये थे। जितनी बार मै उसके गाल की दिशा बदलता उतनी बार उसके काँपते होंठों पर अपनी जुबान फिराते हुए निकल जाता था। वह अपने होंठों से मेरे होठों का पीछा करती परन्तु मै उसके गाल पर अटक जाता था। हर बदलते हुए क्षण पर उसकी आग भड़कती जा रही थी। जब उत्तेजना असहनीय हो गयी तो उसने सारी शर्म त्याग मेरा चेहरा अपने हाथों मे लिया और जबरदस्ती मेरे होंठों को अपने होंठ मे दबा कर पूरी शक्ति से उनका रस सोखने लगी। एक पल के लिये वह साँस लेने के लिये रुकी तो अगले ही पल उसके होंठो पर मै छा गया था। उसका अलहड़पन और मासूमियत भले ही उन दरिंदों ने छीन ली थी परन्तु उस रात मै एक नयी आस्माँ को गड़ने का प्रण ले चुका था। हमारी जुबानें एक दूसरे के साथ अठखेलियाँ कर रही थी और उसके होंठ मेरे निरन्तर प्रहार से लाल होते चले गये थे। जब साँस लेने के लिये अलग हुये तो जन्नत की आवाज कमरे मे गूँजी… क्या अब तुम आगे भी बड़ोगे या फिर सारा बदलाव चेहरे पर ही सिमट के रुक गया था। हम दोनो खिलखिला उसकी बात सुन कर हँस पड़े थे।

उसके उभरे हुए सीने की गोलाईयों को धीरे से सहलाते हुए मैने कहा… कठुआ मे यह सपाट से थे और अब देखो इनमे कितना भराव आ गया है। आस्माँ ने जल्दी से कहा… यह तब भी थे परन्तु तुमने इनको तो छू कर भी नहीं देखा था। तुम्हारा ध्यान तो बस मुझे मारने मे लगा हुआ था। उस रात तुमने मेरी पसली ही तोड़ दी थी। …आस्माँ अपने कुर्ते को उतार कर दिखाओ तो पता चलेगा की श्रीनगर और अब मे कितना फर्क आ गया है। उसने मना करते हुए कहा… नहीं तुम ऐसे ही बताओ। एक बार फिर जन्नत की आवाज गूँजी… अरे मुई उतार दे न। क्यों परेशान कर रही है। पता तो चले कि क्या सच मे इसने तुझको ध्यान से देखा था। एक पल आस्माँ झिझकी और फिर बैठ कर अपना कुर्ता उतार कर जन्नत की ओर फेंकते हुए चिढ़ कर बोली… तू मुँह ढक कर सो जा। मेरी आँखे उसके नग्न सीने पर टिक गयी थी। उसको जबरदस्ती लिटा कर मैने दोनो पहाड़ियों पर एक साथ धावा दिया था। एक पहाड़ी को मेरा हाथ छेड़ता तो दूसरी पहाड़ी पर मेरे होंठ अपने निशान छोड़ रहे थे। उन पहाड़ियों की चोटी पर सिर उठाये स्तनाग्र किसी सैनिक की भाँति अकड़ कर खड़े हुए थे। जितना मै उन्हें अपनी जुबान से मालिश करता और होंठों मे लेकर दबाता उतना ही वह और भी ऐंठ कर कड़े हो जाते थे। दूसरी चोटी पर अकड़े हुए सैनिक को अपनी उँगलियों के बीच फँसा कर कभी तरेड़ता और कभी खींचता और कभी कस कर दबा देता तो आस्माँ तड़प उठती थी। इस दो तरफे हमले से वह उत्तेजना से पागल हो कर अपना सिर पटक रही थी। उसकी कामोत्तेजना अपने चरम पर पहुँच गयी थी। कुछ देर उसके सीने से खिलवाड़ करने पश्चात मै उस से अलग हो गया क्योंकि मुझे अपने जिस्म पर कपड़े चुभ रहे थे।

…क्या हुआ समीर, चुप क्यों हो गये। तुमने बताया नहीं कि इसके सीने मे कितना बदलाव आ गया है। मैने मुस्कुरा कर जन्नत पर निगाह डाल कर कहा… मेरे पास शब्द कम पड़ गये है। आस्माँ ने अपनी आँखें खोल कर देखा तो मुझे नग्न देख कर शर्मा गयी थी। जन्नत अब तक उठ कर बैठ चुकी थी। …समीर, क्या नीचे कोई बदलाव आया है? मैने जैसे ही उसकी शलवार को छुआ तो वह मेरा हाथ झटक कर दूर होने लगी तो मैने उसे पकड़ कर अपने जिस्म के नीचे दबा लिया। वह कुछ देर मचली परन्तु मेरे आगे उसकी एक नहीं चली और उसकी शलवार भी उसके जिस्म से जुदा हो गयी थी। वह करवट लेकर गहरी साँसे ले रही थी तभी मैने उसके पुष्ट नितंब एक थाप देकर कहा… सबसे ज्यादा भराव इन पर देखने को मिला है। उसके नितंब की थरथराहट को मैने महसूस की थी। मैने एक बार फिर से उसके नितंब पर प्रहार किया और एक बार वही थरथराहट को मैने महसूस किया था। मैने उसे धीरे से सीधा किया और उसकी नाभि को चूम कर मैने उसके बालों के गुच्छे से ढके हुए स्त्रीत्व पर नजर डाली तो वह लगातार बह रही थी। मेरी उँगलियों ने धीरे से बालों को हटाया और उसके स्त्रीत्व के द्वार को खोल कर छिपे हुए अंकुर को अनावरित किया। जैसे ही मैने अपनी उँगली से उस अंकुर पर पहला वार किया आस्माँ के मुख से एक चीख निकल गयी थी। मैने उसे छोड़ दिया लेकिन वह आँखें मूंदे पड़ी रही। कुछ देर के बाद वह आँखे खोल कर बोली… क्या हुआ रुक क्यों गये? इतनी देर मे पहली बार उसकी ओर से प्रणय मिलन का आमन्त्रण मिला था। उसकी नजर मेरे झूमते हुए जनानंग पर टिक गयी थी। उसने स्वयं ही आगे बढ़ कर तन्नाये हुए अंग को अपनी उँगलियों मे जकड़ कर स्थिर करके चूमा और फिर मेरी ओर देख कर बोली… अब और मत सताओ। एक नजर जन्नत पर डाल कर मै सवारी के लिये तैयार हो गया था। उसकी आँखों झाँकते हुए मैने उत्तेजना मे झूमते हुए अजगर को गरदन से पकड़ कर स्थिर किया और धीरे से उसके स्त्रीत्व के द्वार पर जा कर टिका दिया। अंग को अंग से छूते ही उसका जिस्म काँप उठा था। मैने धीरे से दबाव डाला तो दोनों पट मेरे अंग की कठोरता के आगे टिक नही सके और खुल गये। मैने धीरे-धीरे दबाव बढ़ाया और मेरा तन्नाया हुआ जनानंग एक अजगर की भांति उसकी गुफा के सारे संकरेपन को खोलता हुआ जड़ तक सिर फँसा कर बैठ गया। जैसे ही हमारे जोड़ एक दूसरे से टकराये उसके मुख से एक गहरी किलकारी अनायस ही छूट गयी थी। मै रुक कर उसकी योनि मे उठने वाले हर स्पंदन को अपने अंग पर महसूस कर रहा था। वह आँखें मूंद कर किसी और ही दुनिया मे चली गयी थी। फिर उसके जिस्म ने इशारा किया तो मै तुरन्त हरकत मे आ गया। वह मचली, छ्टपटायी और फिर तड़पी लेकिन मेरी जकड़ के आगे उसकी एक न चली। मैने एक साथ ही उसके जिस्म के हर कोमल हिस्से से खिलवाड़ करना आरंभ कर दिया। जब जिस्मानी उत्तेजना बढ़ने लगी तब उसके जिस्म मे एक बार फिर से स्पंदन आरंभ हो गये थे। कुछ ही देर मे उसकी सिस्कारियों और सित्कारियों के साथ कमरे मे हम दोनो के जिस्म टकराने की आवाज भी गूँज रही थी। उत्तेजना की चरम सीमा की ओर हम दोनो ही निरन्तर अग्रसर हो रहे थे। एकाएक उसके जिस्म मे एक बिजली सी कौंधी और सारे बाँध ढहते चले गये थे। उत्तेजना मे उसने मुझे अपनी टाँगों मे कस कर जकड़ लिया था। एकाएक वह एक झटका लेकर बेरोकटोक बहने लगी और फिर लस्त होकर ढेर हो गयी। मेरे अन्दर सुलगता हुआ जवालामुखी भी अपने चरम पर पहुँच गया था। मैने अपना अपना आखिरी प्रहार किया तो ज्वालामुखी का लावा बेरोकटोक बहने लगा। हमारे जिस्मों मे आया तूफान शांत हो गया था। हम दोनो थक कर एक दूसरे को बाँहों मे लिये बिस्तर पर पड़ गये थे। जब हिलने योग्य हुए तो मै उससे अलग हो गया और लालटेन की निम्न रौशनी मे करवट लेकर जन्नत की ओर देखा तो उसकी आँखों से आँसू झरझर बह रहे थे।

मेरी नजर आस्माँ पर पड़ी तो उसका जिस्म एकाकार की आग से दमक उठा था। उसके चेहरे पर एक चमक थी और आँखे नशे मे मुंदी हुई थी। मैने जन्नत को इशारे से अपने पास बुलाया तो एक क्षण झिझकी और फिर उठ कर मेरे पास आकर मेरी बाँहों मे समा गयी थी। मुझे याद नहीं कब नींद मे डूब गया था परन्तु दोनो बहनें उस रात मुझ पर कुर्बान हो गयी थी। सुबह जब मै उठा तो अपने आप को दोनो बहनों के बीच मे पाया था। दोनो ही नग्न अवस्था मे मुझे अपनी बाँहों मे बांधे गहरी नींद मे खोयी हुई थी। मै तैयार होने के लिये चला गया और जब तक लौट कर आया वह दोनो तब भी गहरी नींद मे डूबी हुई थी।

उन्हें उठा कर मै युसुफजयी के बारे मे पता लगाने के लिये निकल गया था। उसी इंसान के कारण तो मै यहाँ आया था। उसी की छ्त्रछाया मे ही तो उस रात वह तीन ट्रक सीमा पार से आये थे जिनको हमने पुलवामा मे पकड़ा था। स्थानीय लोगों से बात करके मैने महसूस किया कि मंत्री होने के कारण कुपवाड़ा का हर आदमी अपने आपको पार्टी का कार्यकर्ता और युसुफजयी का जानने वाला समझ रहा था। इस से मेरा काम और भी आसान हो गया था। इसी कारण पहले दिन ही युसुफजयी के स्थानीय आफिस के बाबू इरशाद से मेरी मुलाकात हो गयी थी। दो दिन तक इरशाद के पीछे भागने के कारण मुझे युसुफजयी के बारे मे बहुत सी चीजों का पता चल गया था। मंत्रीजी ने हाल ही मे एक विशाल काल सेन्टर शहर की सीमा पर मुख्य सड़क पर खोला था। ऐसे ही उस आदमी के दूसरे धंधों की जानकारी मुझे लग गयी थी। युसुफजयी खानदानी रईस परिवार से था। उसका टिम्बर, रियल एस्टेट, ट्रांसपोर्ट और आयात-निर्यात का कारोबार था। मेरे निर्देशानुसार दोनो बहनें भी अपने काम पर लग गयी थी। वह अपने बक्खरवाल समाज के लोगों को खोज रही थी जो उनको वापिस जफरवाल बिना किसी मुश्किल के पहुँचा सकते थे।

रोज शाम को हम लोग सारे दिन इकठ्ठी की हुई जानकारियाँ एक दूसरे के साथ बाँटते और फिर रात को धींगामस्ती मे डूब जाते थे। हमे उस जगह रहते हुए एक हफ्ता बीत गया था। एक दिन मै युसुफजयी का काल सेन्टर देखने के लिये पहुँच गया था। इरशाद के नाम हवाला देकर मै काम मांगने के लिये अन्दर भी चला गया था। मुझे वहाँ काम तो नहीं मिला परन्तु आफिस से बाहर निकलते हुए दूर से मेरी निगाह फारुख मीरवायज पर पड़ गयी थी। मै पहली नजर मे ही उसे पहचान गया था। एक पाकिस्तानी कारोबारी का भला यहाँ क्या काम हो सकता है? मै इस सवाल का जवाब सोचते हुए बाहर निकल रहा था कि तभी मुझे अब्बा की कही एक बात याद आ गयी थी… आफशाँ से निकाह के बाद फारुख उसके साथ कुपवाड़ा मे बस जाएगा। मेरी जाँच का दायरा अनायस ही बढ़ गया था।

अगले दिन इरशाद से जब मैने काम के लिये वहाँ के लिये सिफारिश करने की बात कही तो पता चला कि काल सेन्टर का असली मुखिया फारुख मीरवायज है। मैने उसी शाम को ब्रिगेडियर चीमा से फारुख मीरवायज के बारे मे जानकारी इकठ्ठी करने के लिये कह दिया था। अगले दिन से मै रोजाना काल सेन्टर के बाहर बनी हुई चाय की दुकान पर बैठना आरंभ कर दिया था। सेन्टर के लोग जो चाय पीने आते थे उनकी बातें गौर से सुनता और कुछ नहीं उनसे दुआ सलाम करके पहचान बनाने की कोशिश करता। आरंभ मे चाय वाले ने मुझसे वहाँ बैठने का कारण पूछा तो मैने कहा… भाईजान, अपने मंत्री साहब के बाबू इरशाद ने वादा किया है कि वह मुझे इधर काम दिलवा देगा। उस बेचारे को भी मुझ पर तरस आ गया और फिर उस दिन से चाय वाले ने मुझे फिर कभी नहीं टोका अपितु हालात ऐसे बन गये थे कि वह दिन मे एक दो बार अपनी चाय की दुकान मेरे हवाले करके अपनी झुग्गी पर जाने लगा था।

एक दिन मै अकेला दुकान संभाल रहा था। कुछ लड़के चाय पीने के लिये बाहर निकले थे। अचानक बात करते हुए उनमे से एक तेजी से बोला… यार, आज कोन्वोय जल्दी आ गया है। चलो निकलो यहाँ से। आधी चाय छोड़ कर चारों भागते हुए आफिस के अन्दर चले गये थे। तभी मेरे सामने से भारतीय फौज का कोन्वोय गुजरा तो सारी बात पल भर मे समझ मे आ गयी थी। हर तीसरे दिन उस सड़के से फौज का कोन्वोय गुजरता था। दो बार सीमावर्ती इलाको मे रसद, आयुध और सैनिक पहुँचाने के लिये आगे जाता था और दो बार उसी रास्ते से उनकी वापिसी होती थी। मुझे उस सेन्टर का अब असली उद्देश्य समझ मे आ गया था। वह काल सेन्टर नहीं अपितु भारत की धरती पर पाकिस्तानी आब्सरवेशन पोस्ट बनी हुई थी। शाम को ही इसकी जानकारी मैने ब्रिगेडियर चीमा को दे दी थी। इतने दिनो मे दोनो बहनों ने भी अपने बक्खरवाल समाज के साथ संपर्क साध लिया था। एक दिन वह दोनो मुझे बांदीपुरा अपने समाज के लोगों से मिलवाने के लिये उनके डेरे पर लेकर गयी थी। उन्होंने मुझे उनसे अपने खाविन्द के तौर पर मिलवाया था। किश्तवार मे उस बूढ़े गड़रिये ने मुझे सही जानकारी दी थी कि बक्खरवाल समाज के लोग इस मौसम मे ज्यादातर बांदीपुरा और जंस्कार मे अपना डेरा डालते है।

इसी दौरान आफशाँ और आलिया रोजाना फोन पर मेरा हालचाल पूछ लेती थी। एक रात दोनों बहनो के साथ लम्बी धींगामस्ती के बाद जब मै अपनी उखड़ती हुई साँसों को काबू मे लाने की कोशिश मे जुटा हुआ था कि तभी अचानक आफशाँ का फोन आ गया। मैने जल्दी से काल लिया तो उसने तुरन्त छूटते ही कहा… कहीं से भाग कर आ रहे हो। मैने स्थिति संभालते हुए जवाब दिया… हाँ, क्या तुम मुझे देख रही थी। वह हँसते हुए बोली… बोलते हुए तुम्हारी साँस उखड़ी हुई लग रही थी। इसीलिए मैने ऐसा कहा था। समीर, मुझे जरुरी काम से तीन दिन के लिये आफिस के काम से काठमांडू जाना है। मै सोच रही थी कि मेनका को अपने साथ ले जाऊँ या पूणे मे अदा के पास छोड़ कर चली जाऊँ। तुम इस बारे क्या सलाह दोगे? मुझे कुछ समझ मे नहीं आया तो मैने उस पर ही छोड़ दिया था। दो दिन बाद आफशाँ ने फोन पर बताया कि वह मेनका को अपने साथ लेकर काठमांडू पहुँच गयी थी। रोजाना मै युसुफजयी और फारुख की छुटपुट जानकारी इकठ्ठी करके ब्रिगेडियर चीमा के पास भेज रहा था। एमआई के ब्रिगेडियर शर्मा की कुपवाड़ा की टीम लगातार दोनो की गतिविधियों पर लगातार निगाह रख रही थी।

इसी दौरान हमे यहाँ आये हुए तीन हफ्ते हो गये थे। एक दिन इरशाद ने सुबह तड़के ही मुझे फोन किया और तुरन्त आने के लिये कहा तो मै उसके घर पर पहुँच गया था। …समीर भाई, एक काम के लिये तुम्हारी जरुरत पड़ गयी है। हमारा ड्राईवर फिलहाल अस्पताल मे पड़ा हुआ है। क्या तुम हमारा एक ट्रक मुजफराबाद पहुँचा सकते हो? तुम्हारी अच्छी कमाई हो जाएगी। तुम्हें ट्रक वहाँ छोड़ कर बस से वापिस आना पड़ेगा। रास्ते का खर्च अलग से मिल जाएगा। मै तो इतने दिनों से इसी मौके की तलाश मे था। मैने जल्दी से कहा… भाईजान, मै ट्रक तो ले जाऊँगा परन्तु लौटने मे मुझे समय लग सकता है। मुझे अपनी दो बीवियों को लेने किश्तवार जाना है। वह बहुत दिनो से मेरी जान खा रही थी। इरशाद ने मजाक करते हुए कहा… ट्रक वहाँ छोड़ कर तू किश्तवार चले जाना। कमाल है, इस मुफलिसी मे भी तूने दो बीवियाँ पाल रखी है। मैने शर्माते हुए जवाब दिया… भाईजान, बक्खरवाल समाज मे यह तो आम बात है। वह दो बहने थी तो उनके बाप ने पैसा बचाने के लिये दोनो बहनों को मेरे साथ बाँध दिया तो भला मै क्या करता। मेरे कन्धे पर धौल जमा कर इरशाद ने कहा अपना ड्राईविंग लाईसेंस और पीआरसी लेकर कल सुबह दस बजे मंत्रीजी के फल मंडी के गोदाम पर पहुँच जाना।

वहाँ से मै सीधा कैन्टोन्मेन्ट पहुँच गया और ब्रिगेडियर चीमा से बात करके एमआई के द्वारा अपना हेवी ड्युटी कोमर्शियल ड्राईविंग लाईसेन्स एक छ्द्म नाम से बनवाया और छ्द्म नाम से अपना, जन्नत और आस्माँ का पीआरसी कार्ड बनवा कर शाम तक वापिस अपने मकान पर पहुँच गया था। उनके नाम के पीआरसी कार्ड उनको देते हुए मैने बताया कि कल सुबह हम तीनो मुजफराबाद जा रहे है। सुबह उन दोनो को आरामपुरा नाके पर पहुँच कर मेरा इंतजार करना है। चेक नाके पर ट्रक का नीरिक्षण होगा बस तभी मै उन्हें अपने ट्रक मे बिठा लूँगा और फिर हम तीनों मुजफराबाद के लिये चल पड़ेंगें। मेरी कहानी समाप्त होते ही उन्होंने भी एक विस्फोट कर दिया था। जन्नत ने बताया… समीर, दो दिन बाद हमारे बक्खरवाल समाज के डेरे से कुछ लोग खनबल और तंगधार के रास्ते से पैदल सीमा पार करके मुजफराबाद से होते हुए जफरवाल जा रहे है। उसी रास्ते से दो दिन मे हमारे कुछ लोग पाकिस्तान से यहाँ आयेगें। अगर हम उनके साथ जाएँगें तो उनका रास्ता पता चल जाएगा। उन्होंने मेरे सामने एक नयी मुसीबत खड़ी कर दी थी। मुझे घुसपैठ का रास्ते का भी पता करने के साथ युसुफ के मुजफराबाद का कोन्टेक्ट पोइन्ट भी जानना था। आखिरकार हम तीनो के बीच यह तय हुआ कि आस्माँ मेरे साथ ट्रक से मुजफराबाद निकल जाएगी और जन्नत अपने समाज के लोगों के साथ मुजफराबाद पहुँच जाएगी। उसी रात मैने ब्रिगेडियर चीमा को भी अपनी योजना से अवगत करा दिया था। उसके बाद हमारे बीच तय हुआ कि दो दिन के बाद मुजफराबाद के बस स्टैन्ड पर हम दोनो जन्नत का इंतजार करेंगें और फिर वहाँ से आगे का सफर साथ आरंभ करेंगें। रात मे ही हमने चलने की तैयारी कर ली थी। अगली सुबह जन्नत को बांदीपुरा की बस मे बिठाने से पहले उसे कुछ खास निर्देश देकर हम दोनो फल की मंडी की ओर चल दिये थे। जल्दी पहुँच कर मैने पैदल ही मंडी के रास्ते का अध्ययन किया और फिर इस नतीजे पर पहुँचा कि मंडी से बाहर निकलते ही बिक्री कर के नाके पर आसानी से आस्माँ को ट्रक मे बिठाया जा सकता है। आस्माँ को वहाँ छोड़ कर मै दस बजे से पहले युसुफजयी के गोदाम पर पहुँच गया था।

सेब और कीनू की पेटियों से भरा हुआ एक ट्रक गोदाम के सामने खड़ा था। मैने नजरें घुमाई तो इरशाद गोदाम के अन्दर फोरमेन की कुर्सी पर पाँव फैला कर बैठा हुआ था। मुझे अन्दर आता हुआ देख कर वह उठ कर खड़ा हो गया था। …आओ समीर मियाँ तुम्हारा ही इंतजार कर रहा था। वह सामने खड़ा हुआ फलों का ट्रक तुम्हें मुजफराबाद पहुँचाना है। मुझे अपना लाईसेन्स और पीआरसी दिखाओ। मैने जेब से दोनो कार्ड निकाल कर उसके आगे कर दिये तो उसने एक सरसरी नजर दोनो कार्ड पर डाल कर मेज की दराज से एक कागज का पुलिन्दा निकाल कर मेरी ओर बढ़ाते हुए बोला… यह माल की इन्वोइस है। मुजफराबाद मे गोल्डन एंटरप्राईज के गोदाम पर यह ट्रक देना है। वह तुम्हें बिल की कापी देंगें बस वह कापी तुम्हें हम तक पहुँचानी है। मैने जल्दी से कहा… परन्तु भाईजान मै तो वहाँ से किश्तवार जाने की सोच कर आया हूँ। आप ही सोचिए कि सिर्फ बिल की कापी देने के लिये मेरे दो दिन खराब हो जाएँगें। इरशाद ने कुछ सोच कर कहा… तुम बिल की कापी वहीं से हमारे आफिस के नम्बर पर फैक्स करवा देना और फिर बिल को वहाँ के फोरमेन हुसैन को दे देना। वहाँ से जो भी ट्रक यहाँ आ रहा होगा तो उसके हाथ वह इसका बिल भिजवा देगा। इस मामले मे हुसैन से मै फोन पर बात कर लूँगा। इतना बोल कर जेब से पर्स निकाल कर पहले उसने बीस पाँच सौ के नोट गिन कर मेरे हाथ मे रख कर बोला… यह तुम्हारा इस काम का मेहनताना है। नाके और चेक पोस्ट के लिये अलग से हजार रुपये दे रहा हूँ। पाँच हजार रुपये सीमा पर पाकिस्तानी कस्टम के लिये भी अलग से दे रहा हुँ। मुझे लगता है कि इसमे तुम्हारा भी सारा  खर्चा निकल जाएगा। ट्रक का टैंक फुल है इसलिये डीजल भरवाने की कोई जरुरत नहीं है। इतनी बात करके उसने मेज पर रखी चाबी उठाई और मेरी बढ़ाते हुए कहा… संभल कर चलाना मियाँ। यह काम इमानदारी से पूरा कर लिया तो समझो कि फिर तुम्हें काम तलाशने की जरुरत नहीं पड़ेगी।

मैने खुदा हाफिज किया और ट्रक की ओर बढ़ गया। पहले मैने ट्रक का एक चक्कर लगाया और टायर की हवा चेक करने के बहाने ट्रक के सभी हिस्सों पर नजर मार कर स्टीयरिंग सीट पर बैठ गया। ट्रक का गेट खोल कर मैने इरशाद को आवाज लगा कर पूछा… क्लीनर नहीं है क्या? …अरे मियाँ ट्रक वहीं छोड़ कर आना है। इसमे क्लीनर क्या करेगा। मैने चाबी घुमा कर ट्रक स्टार्ट किया और ब्रेक, एक्सेलेरेटर, और गियर को चेक करके एक बार इरशाद पर नजर डाल कर आगे बढ़ गया। मंडी के निकासी द्वार की लाइन मे ट्रक को लगा कर अपनी बारी आने के इंतजार मे आराम से बैठ गया था। एक ट्रक बाहर निकलता तो उसकी जगह अगला ट्रक लग जाता था। इसी तरह धीरे-धीरे सरकते हुए एक घंटे मे मेरा नम्बर भी आ गया था। मैने एक सौ का नोट इन्वोइस के कागजों मे रख कर दीवान जी के हाथ मे रख दिया और ट्रक को बेरियर से थोड़ा आगे निकाल कर साइड मे खड़ा करके इन्वोइस लेने चला गया। यह आस्माँ के लिये इशारा था। वह सबकी नजर बचा कर चुपचाप ट्रक मे बैठ गयी थी। मै लौट कर आया और अपनी सीट पर बैठ कर एक नजर घुमा कर कोने मे बैठी हुई आस्माँ  को देख  कर ट्रक स्टार्ट किया और फिर उसको आगे बढ़ा दिया।

मेरा ध्यान सड़क पर लगा हुआ था क्योंकि यह भीड़ भाड़ वाला इलाका था। पहले गियर मे थोड़ा रास्ता तय किया और जैसे ही मुख्य सड़क पहुँचा ट्रक की गति बढ़ गयी थी। आस्माँ अपने चिर परिचित पुराने लिबास मे थी। सिर पर पगड़ी और उसने अपना जिस्म पुराने कम्बल से ढक रखा था। शहर से बाहर निकलते ही वह मेरे साथ आकर बैठ गयी थी। किसी भी देखने वाले के लिये हम दोनो ड्राईवर और क्लीनर लग रहे थे। कुपवाड़ा से हंडवारा के रास्ते मे काफी ट्रेफिक था परन्तु सोपोर से आगे का रास्ता अच्छा हो गया था। लंबे चीनार के वृक्ष सड़क के दोनों ओर लगे हुए थे। झेलम का पुल पार करते हुआ पहाड़ी रास्ते का बड़ा मनोरम दृश्य आरंभ हो गया था। बारामुल्ला पार करते दोपहर हो गयी थी। हमने ट्रक रोक कर सड़क किनारे ढाबे पर भोजन किया और फिर उरी की ओर चल दिये थे। उरी पहुँचते हमे शाम हो गयी थी। अब तक का सफर शांतिमय था। बीच मे चार टोल नाके मिले और हर नाके पर पर्ची कटा कर हम बिना किसी रुकावट के निकलते चले गये थे। जब तक मैत्रेयी पुल पार करके पाकिस्तान की सीमा मे प्रवेश कर रहे थे तब तक अंधेरा हो चुका था।

ट्रको की एक लंबी लाइन लगी हुई थी। एक बार फिर से अपनी बारी का इंतजार करने बैठ गया था। आस्माँ ड्राईवर सीट के पीछे कोने मे जाकर छिप कर बैठ गयी थी। मैने उस पर अपना कम्बल डाल दिया था। मेरा नम्बर आने से पहले मैने पाँच हजार रुपये की गड्डी बना कर इन्वोइस के साथ रख दी थी। मेरा नम्बर आते ही हरे पठानी सूट पहने सिपाही ने मुझे आगे बढ़ने का इशारा किया और फिर जैसे ही मैने उसके सामने ट्र्क रोका उसने हाथ बढ़ा दिया था। मैने इन्वोइस का पुलिन्दा उसकी ओर बढ़ा दिया। उसने एक नजर इन्वोइस पर डाल कर रखी हुई गड्डी को बड़ी सफाई से अपनी जेब के हवाले किया और फिर मौहर लगा कर मेरी ओर आकर बोला… युसुफ साहब का ट्रक है। आज फिरदौस नहीं आया? मैने अपना ड्राईविंग लाईसेन्स और पीआरसी कार्ड निकाल कर उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा… जनाब वह अस्पताल मे भर्ती है। उसने मेरे हाथ से दोनो कार्ड ले लिये और एंट्री करके वापिस करते हुए बोला… क्या लाये हो आज? …सेब और कीनू है जनाब। वह टहलते हुए पीछे की ओर गया फिर उसने ट्रक के साइड पर हाथ मार कर चलने का इशारा किया तो मैने ट्रक आगे बढ़ा दिया। पाकिस्तान कस्टम कंट्रोल से निकल कर हम मुजफराबाद की ओर चल दिये। दूर से ही शहर की रौशनी साफ दिख रही थी। ठीक आठ बजे हम मुजफराबाद शहर मे दाखिल हो गये थे। आस्माँ आगे आ कर बैठ गयी थी।

गोल्डन एन्टरप्राईज का गोदाम ढूंढने मे कुछ समय लग गया था। उसके नजदीक पहुँचते ही मैने आस्माँ को उतार दिया और उनके गोदाम के बाहर ले जाकर ट्रक खड़ा कर दिया था। एक नजर मार कर चाबी लेकर गोदाम के अन्दर चला गया। काफी बड़ा गोदाम था। कुछ ट्रक पर माल चढ़ा रहे थे और कुछ लोग ट्रक से माल उतारने मे व्यस्त थे। मै उनके आफिस मे चला गया जहाँ आधे दर्जन से ज्यादा लोग कागजी कार्यवाही मे जुटे हुए थे। सामने बैठे हुए आदमी से मैने पूछा… जनाब, कुपवाड़ा से ट्रक लेकर अभी पहुँचा हूँ। ट्रक की डिलीवरी देनी है। उस आदमी ने पहली बार सिर उठा कर मेरी ओर देखा और फिर जोर से चीखा… अल्ताफ, कुपवाड़ा का माल पहुँच गया है। डिलीवरी चालान बना दे। मुझे अल्ताफ नहीं दिखा तो एक बार मैने फिर से कहा… भाईजान। अबकी बार उसने मुझसे कहा… अभी आ रहा है। इंतजार कर इतनी जल्दी क्यों मचा रहा है। मै चुप होकर किनारे मे खड़ा हो गया। कुछ देर बाद अल्ताफ हाथ मे एक किताब लेकर आया और जोर से बोला… कुपवाड़ा। मै उसके पास पहुँच कर बोला… जनाब मै हूँ। …चल मेरे साथ। यह कह कर वह चल दिया। मै उसके पीछे चल दिया। उसने ट्रक पर चढ़ कर पेटियों का नीरिक्षण किया और फिर उस किताब पर कुछ लिख कर एक पर्चा फाड़ कर मुझे पकड़ा कर बोला… ट्रक की चाबी। मैने ट्रक की चाबी उसे पकड़ा दी और वापिस उसी आदमी के सामने जाकर खड़ा हो गया था। उसने जैसे ही सिर उठा कर मेरी ओर देखा तो मैने वह कागज उसकी ओर बढ़ा दिया। उसने वह कागज ले लिया और इस बार गुलाबी किताब की जल्दी से पर्ची फाड़ कर मुझे थमाते हुए बोला… हुसैन साहब के पास चले जाओ। …कहाँ? उसने हाथ इशारा करके कहा… वो केबिन मे बैठे हुए है।

हुसैन शक्ल से ही बेहद काईयाँ आदमी लग रहा था। वह बिल्लौरी आँखों से घूरता हुआ बोला… इस लाइन मे नया है। मैने सिर्फ सिर हिला दिया। …इरशाद ने फोन किया था। यह बिल मेरे पास छोड़ दे मै इसे फैक्स कर देता हूँ। उसने मेरे सामने फैक्स किया और फिर बिल अपनी दराज मे डाल कर बोला… तू जा। एक ट्रक आज रात को कुपवाड़ा के लिये छूटेगा। यह बिल उसके हाथ इरशाद के पास भिजवा दूँगा। …खुदा हाफिज…कह कर मै चल दिया। ट्रक उनके हवाले करके मै वापिस उसी जगह पर पहुँच गया जहाँ मैने आस्माँ को उतारा था। वह मुझे किनारे मे एक पत्थर पर बैठी हुई मिल गयी थी। सब काम समाप्त करके मैने अपने फोन का सिम निकाल कर पर्स मे रख कर हम दोनो शहर मे दाखिल हो गये थे। मुजफराबाद पहाड़ों के बीच वादी मे छोटा सा शहर बसा हुआ था। रात के दस बज रहे थे फिर भी बाजार मे काफी चहल पहल थी। मै हैरान था कि ज्यादातर दुकानें खुली हुई थी। बस स्टैन्ड के पास हम टहलते हुए एक होटल की तलाश कर रहे थे। एक लड़का बन कर आस्मां चुपचाप मेरे साथ चल रही थी। बस स्टैन्ड के सामने एक साथ तीन चार होटल मेरी नजर मे आ गये थे। …किसमे ठहरना है? उसने एक होटल की ओर इशारा कर दिया तो हम उधर चले गये। अपना कश्मीर पीआरसी का कार्ड दिखा कर थोड़ी देर मे एक छोटे से कमरे मे ठहर गये थे।

ठीकठाक सा कमरा था उसमे बस एक डबलबेड की जगह थी। अन्दर घुसते ही मै बिस्तर पर लेट गया था। ट्रक चलाने की थकान अब मुझ पर हावी हो रही थी। आस्माँ ने मुझे पेट के बल लिटा दिया और फिर मेरी पीठ पर बैठ कर अपनी उँगलियों से मेरे कन्धे और गले को दबाते हुए बोली… समीर, भूख लग रही है। बात करते हुए वह लगातार मेरे कन्धे और पीठ को दबा रही थी। उसके हर दबाव से सारी थकान गायब होती हुई लग रही थी। कुछ देर बाद मै उसे वहीं छोड़ कर खाना लेने चला गया था। रात को जो खाने का सामान मिला वह लेकर मै वापिस होटल मे आ गया था। हमने साथ खाना खाया और फिर आराम करने के लिये लेट गये थे। अभी हमारे पास दो दिन थे जिनमे हमे गोल्डन एन्टरप्राईज की जानकारी हासिल करनी थी। मै अपनी सोच मे डूबा हुआ था कि आस्माँ मेरे करीब आकर धीरे से मेरे कान मे बोली… समीर, क्या आज बहुत थक गये हो? मैने उसकी ओर देखा तो उसके चेहरे पर एक कातिल मुस्कान तैर रही थी।

अगली सुबह अजान की आवाज से मै उठ गया था। आस्माँ अभी भी गहरी नींद मे खोयी थी। फज्र की नमाज का समय हो गया था। मै होटल से बाहर निकल कर नमाजियों के साथ चल दिया। अभी भी चारों ओर अंधेरा व्याप्त था। मेरे लिये यहाँ आने का उद्देश्य सिर्फ गोल्डन कंपनी नहीं थी। इंटेल रिपोर्ट्स मे मुजफराबाद के बारे मे लगातार दो व्यक्तियों के बारे जिक्र होता रहता था। पहले आदमी का नाम पीरजादा तारिक शेख मीरवायज था जो एक कट्टरपंथी सुन्नी धार्मिक गुरु था। समीउल हक की दारुल-उलम-हक्कानिया कि तंज पर उसने उत्तरी और मध्य पाकिस्तान मे कट्टरपंथी सोच को फैलाने के लिये मदरसों और मस्जिदों का जाल बिछा रखा था। रिपोर्ट्स मिली थी कि मीरवायज की मदद से अजहर मसूद ने अपना जिहादी समूह जैश-ए-मोहम्मद खड़ा किया था। वह मुजफराबाद स्थित इस्लामिया मस्जिद का इमाम था। पीरजादा होने के कारण अधिकाँश सुन्नी मुस्लिम समाज मे उसके बहुत से अनुयायी थे। दूसरा व्यक्ति मुन्नवर उल लखवी था। मुन्नवर पेशे से कारोबारी था लेकिन उसकी पहचान जकीउर लखवी के भाई के रुप मे ज्यादा थी। आईएसआई के संरक्षण मे वह लश्कर-ए-तैयबा नाम की जिहादी तंजीम का संस्थापक था। रिपोर्ट्स मिली थी कि इस इलाके मे मुन्नवर लखवी किसी अनजान जगह पर लश्कर के जिहादियों का प्रशिक्षण केन्द्र चलाता था। उन्हें वह भारत मे घुसपैठ करने मे भी मदद भी करता था। इसीलिये इनके बारे कुछ जानकारी इकठ्ठी करने के लिये मै यहाँ आया था। 

8 टिप्‍पणियां:

  1. एक बार फिर जबरदस्त अंक और समय का पहिया चलना शुरू हो गया है और समीर इस में जन्नत और अस्मा के साथ भाग रहा है और मुजाफराबाद में लगता आतिश बाजी होने की संभावनाएं हैं और बहुत दिन बाद अदा के बारे में कुछ सुनने को मिला । क्या अदा अभी भी पुणे में ट्रेनिंग ले रही है या फिर उसकी पोस्टिंग अभी वहीं पर है? फिर जन्नत से ये बात पता चली की दोनो बहनों के शौहर जैसे दिखते थे वैसे नही थे और उनके ऊपर जुल्म में भी थोड़ा बहुत उनका हाथ है।

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  2. मित्र तुमने मुझे अचंभित कर दिया है। मैने कुछ देर पहले ही तो यह अंक प्रकाशित किया था। इसमे कोई शक नहीं कि समय के पहिये अनुसार कहानी ने एक नया मोड़ लिया है। दो नये किरदार उभरे है जिनकी उपस्थिति वैसे तो पाकिस्तानी हिस्से मे दर्ज थी परन्तु उनकी मंशा और कार्य की समीक्षा इस कहानी को आगे बढ़ायेगी। दोस्त शुक्रिया।

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  3. जी मैं कल से इस अंक की अपेक्षा कर रहा था और आज जब देखा की नया अंक यहां आ चुका है तो उसको पढ़ने से मुझ को रहा नही गया और अंक पढ़ने के बाद में जो समझ आता है लिख डालता हूं।

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  4. हमेशा की तरह धांसू लेखन, "जन्नत आस्मा अदा आफशा आलीया" अप्सराओंका ताता बढता जा रहा😉इनसेभी काम निकलवाना और काम बजाना😃कोई आपसे सिंखे, हॅट्स ऑफ भाई🙏

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    1. प्रशान्त भाई बहुत शुक्रिया। परन्तु तीन अप्सरायों को आप कैसे भूल गये जिन्होंने उसे बच्चे से युवक बनाया और फिर युवक से पुरुष बनाया था। आसिया, आयशा और एलिस का रोल उसके जीवन मे किसी भी तरह से कम नहीं आँका जा सकता। मुझे खुशी है कि आप इस कहानी से अभी तक जुड़े हुए है।

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    2. हां बिलकुल सही कहा भाई, मुझे इन सबमे अंजली का और झरिना का अक्स एकसा लगा, बाकी किसींभी कॅरॅक्टरके साथ इतना जुडाव महसुस नही हुवा. हा सक्कु बी का अपवाद कर सकते है. पर झरिना और अंजली सा कोई नही.

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  5. मुजफ्राबाद के सफर से अफगानिस्तान का पहला सफर याद आ गया,आपकी लेखनी ऐसी है वीर भाई की पढ़ने वाले की आखों के आगे सारा नजारा आ जाता है,जैसे खुद सफर कर रहा हो, बा कमाल 👌👌,जबर्दस्त कहानी है

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  6. हरमन भाई आपकी टिप्पणी ने मेरा उत्साह काफी बढ़ा दिया है। वाकई में आप मेरे लेखन के जरिये अगर नजारें और भावनाओं को महसूस करते है तो यह लेखक की कामयाबी मानी जा सकती है। आपकी भावनाओं के लिये तहे दिल से धन्यवाद।

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